खबर एक ऐसी जो संस्कृति को लेकर/ पांडव नृत्य एक पौराणिक परम्परागत देव नृत्य

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रूद्रप्रयाग/

पाण्डव नृत्य का आयोजन गढ़वाल (उत्तराखण्ड) के गाँवों में हरिबोधनी एकादशी से प्रारम्भ हो जाता है और लगभग जनवरी प्रथम सप्ताह तक जारी रहता है। इसमें ग्राम देवी – देवता(क्षेत्रपाल, काली, चण्डी, जाख, घण्डियाळ, हनुमान आदि) और पाण्डव अपने-अपने पश्वाओं पर अवतरित होकर पारम्परिक वाद्य यन्त्रों(ढोल-दमाऊँ) की थाप और धुनों पर नृत्य करते हैं। मुख्यतः जिन स्थानों पर पाण्डव अस्त्र छोड़ गए थे वहांँ पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। पाण्डव नृत्य के साथ-साथ पाण्डव लीला का भी आयोजन किया जाता है।
चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गरुड़ व्यूह, मकर व्यूह मुख्य आकर्षण के केन्द्र होते हैं।
पाण्डव नृत्य के जानकर शिक्षक माधव नेगी बताते हैं कि गढ़वाल में पाण्डव नृत्य मुख्यतः रुद्रप्रयाग-चमोली जिलों वाले, केदारनाथ- बद्रीनाथ धामों के निकटवर्ती गाँवों में होता है।
प्राचीन काल में हमारे धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन कर समन्वय स्थापित करना था।
इस प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजनों से ध्यो-धियाणियों व प्रवासियों को अपनी मातृभूमि से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
रवि की फसल की बुवाई के बाद ग्रामीण इस खाली समय में पाण्डव नृत्य के आयोजन के लिए बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते हैं।
इसके बहुत सारे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण भी हैं पाण्डव नृत्य कराने के पीछे ग्रामीणों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गांँव में खुशहाली, अच्छी फसल और माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपा रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है।

 

ग्राम जैली में पाण्डव नृत्य
रूद्रप्रयाग जनपद के जखोली विकास खण्ड के ग्राम सभा जैली के ग्रामीणों द्वारा भी पाण्डव नृत्य का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जा रहा है। यह दिव्य व भव्य समारोह 19 नवम्बर से 3 दिसम्बर तक सुनियोजित तरीके से संचालित होगा।
आयोजन मण्डल के सदस्य भगवान सिंह राणा व बीरेन्द्र सिंह पंवार(बीरा) का कहना है कि
इस भव्य और वृहद् आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियाँ अपने मायके आती हैं तथा दिल्ली, मुम्बई जैसे आदि बड़े शहरों में रह रहे प्रवासियों को अपने गाँव से जुड़ने का मौका मिलता है। जिससे उनको वहाँ के लोगों को अपना सुख दुःख जानने का अवसर मिल जाता है।
बयोवृद्ध आदमी जो पूर्व में भीम के पश्वा रहे हैं श्री चन्द्रसिंह पंवार जी व श्री जितार सिंह पंवार तथा माँ इन्द्रासणी के पुजारी श्री बुद्धिराम रतूड़ी जी कहना है कि पाण्डव नृत्य के आयोजन में सर्वप्रथम गाँव वालों द्वारा पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार की जाती है। सभी गांव वाले तय की गई तिथि के दिन पाण्डव चौक में एकत्र होते हैं।

पाण्डव चौक(चौंरा) उस स्थान को कहा जाता है, जहां पर पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल एवं दमाऊँ जो कि उत्तराखण्ड के पारमपरिक वाद्य यन्त्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियाँ निहित होती हैं। इन दो वाद्य यन्त्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पाण्डव पश्वा कहा जाता है। वे गांँव वालों द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, प्रत्युत  विशेष थाप पर विशेष पाण्डव अवतरित होता है, अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अपनी विशेष थाप होती है। पाण्डव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल-दमाऊंँ की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं।

दयाराम भट्ट व मुरलीधर चमोली कहते हैं कि
पाण्डव नृत्य देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। यह सदियों से चली आ रही उत्तराखण्ड की अनुपम सांस्कृतिक धरोहर है।
अपने बनवास काल में पाण्डवों को भूख और प्यास से व्याकुल होना पड़ा था।
भीम आदि पाण्डव देव अपने पशवाओं पर अवतरित होकर जंगल की ओर जाते हैं, जहाँ से वे कण्डाली(बिच्छू घास), सुराई, कन्द मूल फल लाकर नृत्य करते-करते खाते हैं।
इससे यह प्रमाणित होता है कि निश्चित ही पाण्डवों ने बहुत ही बुरे दिन व्यतीत किये हैं।
इस सुअवसर पर सभी ग्रामीण उपस्थित रहते हैं, जिनमें से
वीरेन्द्र पंवार, हरिकृष्ण भट्ट, अमर सिंह पंवार, जनार्द्धन, हरिनन्द बहुगुणा, गोपाल पंवार, गुणानन्द बहुगुणा, चक्रधर भट्ट, सुदीप भट्ट, अर्जुन सिंह, नरोत्तम जोशी , श्याम सिंह, बीरबल सिंह, गुणानन्द चमोली, मुरलीधर चमोली, नरेन्द्र जगवाण, शम्भू प्रसाद बहुगुणा, मनमोहन बहुगुणा, देवी प्रसाद बहुगुणा, जगत सिंह, मंगल सिंह राणा, पुरुषोत्तम भट्ट, परशुराम भट्ट, पवन भट्ट, राजेन्द्र भट्ट, रामचन्द्र राणा, इन्द्र सिंह, भवानी प्रसाद, गैणा सिंह, किशोर नैनवाल, सोहन सिंह, सुन्दर सिंह, महेन्द्र सिंह, गंगा सिंह आदि समस्त महिलाओं के साथ उपस्थित रहकर अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।


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