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देवभूमि की बेमिसाल परंपरा, पहाड़ में पशुओं की मंगलकामना का पर्व है ‘खतड़वा’
![image: देवभूमि की बेमिसाल परंपरा, पहाड़ में पशुओं की मंगलकामना का पर्व है ‘खतड़वा’, उत्तराखंड देवों की भूमि और इस बात को दुनिया जानती है। इस बीच आज हम आपको एक बेहतरीन त्यौहार खतड़वा के बारे में बताने जा रहे हैं। image: khatarwa parv in uttarakhand](https://healthcolumn.in/Uploads/3413365f-2c07-4278-bfbe-3399230572b2.jpg)
उत्तराखण्ड की संस्कृति और परंपराएं अनमोल हैं। जहां कुल देवता, स्थान देवता, भू देवता, वन देवता, पशु देवता और ना जाने कितनी पूजाओं का प्रावधान है, जो ये साबित करता है कि उत्तराखंड के लोग प्रकृति के काफी करीब हैं। ऐसा ही एक पर्व है खतड़वा। ये एक ऐसा पर्व है, जिसे पशुओं की मंगलकामना का पर्व कहा जाता है। वैसे देखा जाए तो ये दुनिया में अपनी तरह का अकेला पर्व है। जिसे बचाए रखना काफी जरूरी है। एक जगह पर घास के पुतले बनाये जाते हैं, उन्हें फूलों से सजाया जाता है। उस पुतले को अखरोट, मक्का और ककड़ी अर्पित की जाती है। इसके बाद पशुओं के गोठ(गौशाला) की सफाई की जाती है। सभी जानवरों को नहला धुला कर नई हरी घास खिलाई जाती है और उनकी गौशाला में सोने के लिये नई सूखी घास बिछाई जाती है। कुमाऊं में इस त्यौहार के दिन अलग ही माहौल देखने को मिलता है।
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इस दिन जानवरों का तिलक होता है और फिर शाम को भांग के डंठल पर एक पुराना कपड़ा बांधकर उसे जलाया जाता है। इसके बाद इसे पूरे गोठ में घुमाया जाता है और उसके बाद उस आग को गांव की सीमा पर ‘भाज खतड़वा भाज’ कहते हुए फेंक दिया जाता है। इसके बाद सामूहिक रूप से ककड़ी का भोज होता है और सभी पशुपालकों को उनके लोकपर्व की बधाई दी जाती है। उत्तराखण्ड में कम उपजाऊ जमीन होने के बावजूद शुरुआत से ही खेती और पशुपालन आजीविका का मुख्य आधार रहा है। आज भी कृषि और पशुपालन से सम्बन्धित कई पारम्परिक लोक परम्पराएं और तीज-त्यौहार पहाड़ों में जीवित है। फिर चाहे वो हरियाली और बीजों से सम्बन्धित हरेला का त्यौहार हो, या फिर पिथौरागढ़ में मनाया जाने वाला हिलजात्रा हो। कुछ इसी तरह का एक ओर त्योहार उत्तराखंड में मनाया जाता है जिसे यहां खतडुवा कहा जाता है।
भादों के महीने में मनाया जाने वाला खतड़ुवा पर्व पशुओं की मंगलकामना के लिये ही होता है। खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या दूसरे गरम कपड़े। बता दे कि सितंबर के महीने में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में हल्की हल्की ठंड पड़नी शुरु हो जाती है। इस दिन बच्चे जोर जोर से गाते हैं।
भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा
गै की जीत, खतडुवै की हार
भाग खतड़ुवा भाग
इस गाने का अर्थ है कि पशुओं को लगने वाली बीमारियों की हार हो। सोचिए कैसी विशाल परंपराओं से भरी पड़ी है उत्तराखंड की धरती। ये ही वो वजह हैं, जिनकी बदौलत उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है।